1. पहले कोई बीमार होता था तो हम जाकर उसका हालचाल पूछ्ते थे। फिर ग्राहम बैल नाम का एक व्यक्ति पैदा हुआ और उसने दूरभाष(telephone) का अविष्कार कर दिया और हम फोन से ही काम चलाने लगे। धीरे धीरे हमने और भी विकास कर लिया। याहू कंपनी में काम करने वाले दो अभियन्ताओं ने (Jan Khoum and Brian Acton) ने वाट्सएप्प का अविष्कार किया जिसे 2014 में फेसबुक ने खरीद लिया।वाट्सएप्प बहुत कमाल की चीज है। अब कोई मित्र या रिश्तेदार चाहे गहन चिकित्सा कक्ष में भर्ती हो हम केवल तीन शब्द ही लिखते हैं ,”गैट वैल सून ” जैसे उसे आदेश दे रहे हों कि क्यों बिमार पड़ा है। जल्दी ठीक हो जा। वाकई हमारा विकास काबिले तारीफ़ है।
2 . आजतक कभी भी ऐसा नहीं हुआ की किसी ने बबूल का पेड़ बोया हो और उस पर आम के फल उगे हों। हो सकता है उसने हेरा-फेरी से कुछ समय के लिए आम खा लिए हो पर अंतत: अपने द्वारा बोये गए बबूल के काँटों का दर्द भी उसे ही भुगतना पड़ता है चाहे महाभारत के भीष्म पितामह की तरह सो जनम ही क्यों न लग जायें।
3 . ज्यादातर लोगों का जीवन में कोई न कोई आइकॉन (icon) होता है। लेकिन हर व्यक्ति को अपना आइकॉन बनाने से पहले उसके व्यक्तित्व के बारे में गम्भीरतापूर्वक अध्ययन व अवलोकन कर लेना चाहिए। एक ऐसा व्यक्ति जिसकी इमानदारी सन्देहास्पद रही हो ,जो झूठ बोलता हो ,जिसकी आत्मा कमजोर हो , जिसके जीवन में आत्मानुशासन न हो और जो अपने छुद्र स्वार्थ की पूर्ती के लिए कुछ भी कर सकता हो ;अगर वह आपका और आपके परिवार का आइकॉन है तो आपके परिवार का भविष्य संकट में है।
4. आत्मानुशासन भगवान राम के जीवन का मूलमंत्र है। अपने जीवन में अगर हम आत्मानुशासन नहीं ला सकते तो हमें भगवान राम का भक्त कहलाने का कोई नैतिक आधार नहीं है। भगवान राम के जीवन से हम आत्मानुशासन का पाठ पढ़ सकते हैं। “जय श्री राम ” एक बहुत सुन्दर नारा है लेकिन केवल नारा लगाने से कुछ नहीं होगा। हमें भगवान राम के जीवन दर्शन को अपने जीवन में उतारना होगा। अगर हम ऐसा नहीं कर सकते तो हमारा जय श्री राम का नारा लगाना प्रपंच से अधिक कुछ नहीं है।
5. लक्ज़री गाड़ी की फ्रंट सीट पर इठला कर पति के बगल में बैठे हुए कभी उन हाथों को भी याद कर लेना चाहिए जिन हाथों ने आपके पति के हाथों में कार की स्टेरिंग पकड़ाते पकड़ाते खुद के हाथों में लाठी पकड़ ली।
6. स्वतन्त्रता,उत्तरदायित्व और कर्तव्य- ये सब एक ही बात के अलग अलग पहलु हैं।उत्तरदायित्व और कर्तव्य के बिना स्वतन्त्रता स्वछन्दता हो जाती है।स्वतन्त्रता के बिना उत्तरदायित्व और कर्तव्य शोषण का रुप धारण कर लेते है। एक पीढ़ी पहले तक युवक -युवतियां परिवार के बड़े-बुजुर्गों की सुविधा अनुसारअपनी व्यक्तिगत आजादी से कुछ हद तक समझौता कर लेते थे। पर आजकल ऐसा नहीं होता। कुछ तो कई कारणों से नई पीढ़ी भी बहुत दबाव में है।लेकिन मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है की नई पीढ़ी में अच्छे संस्कारों की भी बहुत कमी है और उनमें बड़े -बुजुर्गों की सेवा की भी कोई भावना नहीं है।दरअसल बड़े बुर्जगों की सेवा करना न केवल हमारा सामाजिक दायित्व है बल्कि हमारा कर्तव्य भी है जिसे खुशी खुशी पूरा करने की शिक्षा और संस्कार सभी युवक -युवतियों को बचपन से ही दिए जाने चाहिए।
7. मैं ऐसे कई लोगों की अर्थी के साथ जा चुका हूं जिन्हे यह पक्का विश्वास था कि उनकी जवानी और अकड़ हमेशा बरक़रार रहेगी।
8. कुछ लोग हवाई चप्पल की तरह होते हैं। वे काम तो बहुत आते हैं पर कीचड़ भी बहुत उछालते हैं।
9. एक समय था जब रसोई से सारे परिवार का स्वास्थ्य निकलता था। लेकिन आज वह स्थिति नहीं हैं। बहुत से कारणों में एक कारण यह भी है कि बहुत सी बच्चियों को आजकल न तो स्वास्थ्य के मौलिक निमयों का ज्ञान दिया जाता है और न ही विवाह से पहले उनसे रसोई में काम करवाया जाता है। इसके हालांकि बहुत से व्यावहारिक कारण भी हैं। लेकिन मेरा मानना है कि हर स्त्री को स्वास्थ्य के मौलिक नियमों की आवयश्क जानकारी जरुर दी जानी चाहिए तांकि घर की रसोई से पौष्टिक और सुरुचिपूर्ण भोजन निकले जो की सबके लिए स्वास्थ्यवर्धक हो ,रोगकारक नहीं।
10. सशक्त प्रजा ,सशक्त राजा ,सशक्त राष्ट्र। आओ मिलजुल कर एक महान भारत का निर्माण करें।
11. अपनी अपनी किस्मत की बात है। लोग उन्हें भी वन्दे मातरम कहते हैं जो जरा सी मुसीबत आने पर अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं।
12 . आजकल कुछ आधुनिक युवतिओं का तो फैशन बन चुका है कि वे अपने पतियों से बहुत बाद में उठती हैं। वे अपने पतिओं से ये आशा करती हैं कि उनके पति ही घर का अधिकतर काम निपटा कर आफिस में जायें।आधुनिक युग में कोई कह सकता है की यह पति-पत्नी का निजि मामला है। लेकिन जब घर के बुज़ुर्ग उनके साथ रहने आते हैं तो कुछ दिन के लिए भी वे अपनी आदतें बदलने के लिए तैयार नहीं होती और न ही वे उनके खाने पीने और आराम का ध्यान रखती हैं। यहां तक की वे बुजुर्गों को सुपाच्य और पौष्टिक भोजन देने में भी कोई रुचि नहीं लेती। बुजर्गों को समय पर दवाई और चिकित्सीय सलाह दिलाने में तो आजकल केअधिकतर युवाओं की भी कोई रुचि नहीं है। शायद यही कारण है की बुजुर्ग भी मज़बूरी में अकेले ही रहना पसंद करते हैं। क्योंकि अपने शहर में तो फिर भी वह अपनी व्यवस्था खुद कर लेते हैं पर दूसरे शहर में अपनी व्यवस्था खुद करना उनके बस की बात नहीं होती।
समाज की इस नई व्यवस्था का बच्चों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। वे घर में बहुत अकेला महसूस करते हैं। अकेलेपन में वे मोबाइल फोन में और टेलीविज़न में व्यस्त रहते हैं और बहुत गलत बातें सीखते हैं। वे अपनी सभ्यता और संस्कृति से तो अनभिज्ञ रहते ही हैं ,उनमें अच्छी आदतों का भी विकास नहीं हो पाता। अगर अपने बच्चों के समुचित विकास के लिए आप बुजुर्गों को साथ रखना चाहते हैं तो आपको अपनी नियत और आदतें दोनों ही सुधारनी पडेंगी।
13 .अपने आप को स्वस्थ रखने का पूरा प्रयास करना हमारा व्यक्तिगत ,सामाजिक और राष्ट्रीय कर्तव्य है।वस्तुत: जो लोग केवल आलस्य वश अपने स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखते वे कानूनी रुप से सजा के पात्र होने चाहिए।
14. मुझे कुछ दिन किसी परिवार में रुकना पड़ा।वह एकल परिवार था। दो भाई और बड़े भाई की पत्नी।दोनों भाई तो नौकरी पर चले जाते थे।सुबह रसोई का ज्यादातर काम दोनों भाई निपटा कर जाते थे। दो बच्चे थे। महिला तो मुश्किल से बच्चों को स्कूल के लिए तैयार मात्र करती थी। परिवार में सबसे लेट वही उठती थी। सुबह की चाय भी उसे उसका पति ही बनाकर देता था। दोपहर बाद बच्चों के लौटने का समय होता था। तब तक वह महिला अपने निजी रुम में ही बंद रहती थी। उस स्त्री का स्वास्थ्य भी ज्यादा अच्छा नहीं था । शायद उसका रक्तचाप भी ज्यादा था। वह छोटी छोटी बातों पर बच्चों को डांटती रहती थी।बहुत ही आलसी भी थी वह और साथ में बहुत चुस्त चालाक भी। उसे केवल वातानुकूलित कमरों में रहने ,वातानुकूलित गाड़ियों में घूमने और होटलों में फास्टफूड खाने का शौक था।ऐसे लोग चाहें महिला हों या पुरुष वे अपने परिवार पर ,समाज पर और अपने देश पर बोझ होते हैं।
15 .आजकल मनुष्य इतना स्वार्थी हो गया है कि वह किसी के प्रति प्रेम और अपनत्व की भावना भी तभी प्रकट करता है जब उसे उससे कोई काम हो। अपना काम निकाल लेने के बाद उसकी भावना बदलते देर नहीं लगती। मनुष्य के आपसी व्यवहार का यह सिद्धान्त बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। एक सज्जन और उच्च मानसिकता वाले व्यक्ति को न केवल इस सिद्धान्त पर चलने वाले लोगों से सजग रहना चाहिए बल्कि अपने सामाजिक व्यवहार में इससे बचना भी चाहिए क्योंकि इस सिद्धान्त पर चलने वाले व्यक्ति समाज में धीरे धीरे अपना सम्मान खो देते हैं।
“प्रयोग करो और फैंक दो”(Use and throw) वस्तुओं का अविष्कार करते करते आज के मानव का उपयोग भी “प्रयोग करो और फैंक दो”(Use and throw) जैसा हो गया है। जैसे ही कोई किसी के लिए उपयोगी नहीं रहता है वह उसे फैंक देता हैं।
16. आजकल लोग आध्यात्मिकता ,धरमकरम ,दानवीरता और विनम्रता का दिखावा बहुत करते हैं। ऐसे लोगों को आप थोड़ा उपेक्षित करके देखें या केवल उनसे किसी कार्य विशेष में अपनी अलग राय प्रगट करके देखें जिससे आपकी स्वतन्त्र कार्येशैली दिखाई दे तो आपको उनके विराट स्वरुप का ज्ञान हो जाएगा।
17. अच्छाई की इतनी ताकत होती है कि बुराई को भी कहीं आना हो तो उसे अच्छाई का वेश धारण करके आना पड़ता है। अपने वेश में कहीं भी उसे प्रवेश नहीं मिलता।
18. आपकी प्राथमिकताएं आपके बारे में बहुत कुछ बताती हैं। लॉन्ग वीकएंड पर अगर आप अस्वस्थ और अकेले रहने वाले बुजर्गों की बजाए अपने मित्रों के साथ कहीं घूमने जाना पसन्द करते हैं तो अपनी प्राथमिकताओं के बारे में एक बार गंभीरता से विचार करें।
19. व्यक्ति को कोई भी काम करने से पहले यह गंभीरता से सोचना चाहिए कि जो काम वह करने जा रहा है उसका उस पर , उसके परिवार पर और समाज, राष्ट्र तथा समस्त विश्व पर क्या असर पड़ेगा। अगर समाज ,राष्ट्र और विश्व पर बुरा असर पड़ता हो तो अपने और परिवार की भलाई के लिए गलत काम नहीं करना चाहिए। जिस काम का आपके परिवार पर अच्छा असर पड़ता हो तो अपनी निजी भलाई और सुविधा को त्यागना ही बेहतर है। लेकिन आजकल हमारी प्राथमिकताएं बदल गई हैं और हर मनुष्य केवल निजी सुविधा और स्वार्थ का ध्यान रखता है।हमारी अधिकतर समस्यायों के लिए हमारी गलत प्राथमिकताएं ही उत्तरदायी हैं।
20. जीवन में एक समय ऐसा आता है जब व्यक्ति को यह लगता है कि वह रहे या न रहे इस बात से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसी परिस्थिति में भी अगर व्यक्ति पूर्ण विश्वास के साथ जी सके तो समझो कि वह बहुत साहसी व्यक्ति है।
21. ऐसी तरक्की का क्या लाभ जिसमें आपको अपनों से बात करने की और अपने लोगों की कुशलक्षेम पूछने की भी फुरसत न हो।
23 . कमाल का युग है। हम हजारों मील दूर बैठे लोगों को सुबह सुबह अच्छे अच्छे मैसेज भेजते है पर पड़ोस में बीमार पड़े मित्र का हाल चाल पूछ्ने भी नहीं जाते।
24. जब कभी जीवन की धारा विपरित मालुम पड़े तो व्यक्ति को भगवान पर भरोसा रख कर जीवन की नाव को अस्तित्व की नदी में छोड़ देना चाहिए। “हिम्मत करो और आगे बढ़ो।” यही कठिन परिस्थितियों में जीवन का मूलमन्त्र होना चाहिए। एक बार व्यक्ति जब धारा के विरुद्ध बहने कि कला सीख जाता है तो फिर उसके व्यक्तित्व में जिस उर्जा और आत्मविश्वास का उदय होता है उसमें एक विशेष दिव्यता होती है।
25. घर के जिन कमरों में बुजुर्ग लोग रहते हों उनमें हर तरह की फिटिंग और उपयोग की वस्तुएं ऐसी होनी चाहिए जिन्हे बुजुर्ग लोग आसानी से उपयोग कर सकें चाहें इसके लिए हमें अपने डिजाइन से कुछ समझोता ही क्यों न करना पड़े। उदाहरण के लिए मैं कुछ दिन के लिए एक ऐसे घर में मेहमान रहा जहां कोमोड पर लग्गे फोहारे को चलाने में ही मुझे अच्छा खासा संघर्ष करना पड़ता था। एक अन्य घर में मुझे नहाने के लिए ठंडा गर्म पानी निकालना हर बार अपने यजमान से समझना पड़ता था।
26. अगर व्यक्ति थोड़ा जागरुक हो और उसे आध्यात्म का थोड़ा अनुभव हो तो वह मरते हुए व्यक्ति को देखकर यह अंदाज लगा सकता है कि मरते हुए व्यक्ति का जीवन कैसा था। एक शांतचित ,ध्यान का कुछ अनुभव रखने वाला और आध्यात्मिक जीवन जीने वाला व्यक्ति आराम से विदा होता है जबकि अशांतचित ,स्वार्थयुक्त और दुनियादारी में लिप्त व्यक्ति बहुत मुश्किल से विदा होता है। कई बार तो ऐसे व्यक्ति तड़फ तड़फ कर मरते है। मेरा यह मानना है कि हम कैसे मरते हैं इससे पता लगता है कि हम कैसे जिए -हमारे जीवन कि गुणवत्ता (Quality of Life) कैसी थी।
27. जैसे बच्चों की माँ मर जाने पर उनके पिता का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने बच्चों को माता व पिता दोनों का प्यार देने की कोशिश करे वैसे ही अपनी माता की मृत्यु के बाद बच्चों का भी यह फर्ज हो जाता है कि वे अपने पिता की देखभाल इस प्रकार से करें कि उनके पिता को उनकी माँ कि कभी कमी महसूस न हो।
28.जब कभी कठिनाई का समय आए तो बाहरी सहायता की बाट जोहने की बजाय अपनी अंदरुनी ताकत को जगाइए ,भगवान से प्रार्थना कीजिए और मन में विश्वास रखें। आप खुद ही उस समस्या को हल कर लेंगे।
29. सुखद बुढ़ापे के लिए एक सूत्र याद रखें। वह सूत्र है कि मरने से पहले उन उन स्थानों से हट जायें जो आपको मरने पर छोड़ने ही पड़ेंगे। केवल उन्हीं बातों पर ध्यान दें जो आपको स्वस्थ और सुखद बुढ़ापा दे सकती हैं। दुनियादारी में ज्यादा मत उलझे। नई पीढ़ी को केवल प्रज्ञा देने की चेष्टा करें। खाली समय में भगवान से प्रार्थना करें की भगवान उन्हें सद्बुद्धि और सामर्थ्य दे। उनके किसी भी काम में कोई भी दखलांदाजी न करें। आगामी पीढ़ी की स्वतंत्रता व समझ का सम्मान करें। सलाह तभी दें जब मांगी जाए। इसलिए मेरा सुखद बुढ़ापे का सूत्र है कि मरने से पहले ही मर जाएं।
30 .अगर हम नियमित रूप से आधा घंटा रोज ध्यान करने की कला सीख जाएं तो बहुत सी व्यर्थ बातें हमारे जीवन से धीरे धीरे विदा होने लगेंगी।