संतो की वाणी –परमहंस श्रीरामकृष्णदेव जी

परमहंस श्री रामकृष्णदेव ज़ी का जन्म 16 फ़रवरी 1836 इस्वी को कलकते से 60 मील उत्तर पश्चिम में स्थित एक छोटे से गांव कामारपुकुर में  हुआ था। श्री रामकृष्णदेव  ने गांव की पाठशाला में ही थोड़ी बहुत पढाई की थी। वे ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे। लेकिन उनकी मेधा इतनी प्रखर थी की दो शताब्दी  बाद भी  लाखों पढ़े -लिखे लोग उनके ज्ञान से अपने जीवन पथ को आलोकित करते हैं  और अपनी कठिन से कठिन समस्याओं  का समाधान पाते  हैं। उनके जीवन काल में भी उनके पढ़े लिखे शिष्यों की संख्या कम नहीं थी। 

उनके पिता श्री क्षुदिराम चटोपाध्याय  व माता चंद्रमणि  भक्त स्वभाव के थे और दोनों को अपने इस पुत्र जन्म के बारे में पूर्वदर्शन हुए थे। मात्र छः  या सात वर्ष की आयु में उन्हें पहली बार समाधि का अनुभव हुआ था। धन्य हैं वे माता पिता जिन्होंने इस आलोकिक बालक का पालन पोषण किया और धन्य हैं वे लोग जिन्होंने उन्हें देखा और सुना। पहली बार जब उन्हें समाधी का अनुभव हुआ तो वे  धान के एक खेत  की संकरी मेड़ो  पर  घूम रहे थे। उनके पास एक डलिआ  में कुछ भुने हुए चावल के दाने थे। आकाश में छाये काले  बादलोँ के नीचे से  सफेद बगुलों  का एक उड़ता हुआ समुह देख कर वे उसमे इतने लीन हो गए कि वे बेसुध हो जमीन पर गिर गए और चावल के दाने  इधर उधर बिखर गए। कुछ लोगों ने उन्हें देख लिया  और उठा कर घर पर ले आए। इतनी  कम उम्र में समाधि  का अनुभव होने का सीधा सा मतलब है की वह कोई  साधारण बालक नहीं थे। 

1946 ईस्वी में अपने पिता  की मृत्यु का उन्हें गहरा आघात लगा और वे अधिक अन्तर्मुखी  और मननशील हो गए। छोटी आयु में ही उन्होंने बहुत से भजन और प्रार्थना गीत सीख लिए थे  जिन्हे वे  अपने मित्रों के साथ खेलते हुए गाते थे। बचपन में वे धार्मिक नाटकों में अभिनय भी करते थे। कुछ लोगों का मत है  की वे नज़दीक के शमशान घाट में जाकर अकेले ही साधना करते थे। उनके गांव से एक रास्ता पुरी (जगन्नाथ पुरी ) भी  जाता था  और उस  रास्ते पर स्थित धर्मशाला में पुरी जाने वाले तीर्थयात्री व  कई  साधु  संत आकर रुकते थे। श्री रामकृष्णदेव ने भक्ति व प्रार्थना गीत उन्हीं तीर्थयात्रिओं  व साधु संतों से सीखे थे। 

1855 में  कलकत्ता  की एक धनी  महिला ने  दक्षिणेश्वर के कालीमंदिर का निर्माण करवाया था। उस महिला का नाम था –रानी रासमणि। श्री रामकृष्णदेव के बड़े भाई श्री रामकुमार ने उस मंदिर में काली देवी की प्राणप्रतिष्ठा  करवाई थी। वे उन दिनों कलकत्ते में एक पाठशाला चलाते थे और कुछ धनी लोगोँ  के घर पूजा -पाठ करते थे। 31 मई 1855 को जब प्राणप्रतिष्ठा  हुई उस समय श्री रामकृष्णदेव भी वहां पर उपस्थित थे। वे उन दिनों भाई की मदद के लिए ही कलकत्ता गए हुए थे। कुछ समय के बाद उन्हेँ दक्षिणेश्वर के कालीमंदिर का पुजारी  नियुक्त किया गया। 

आध्यात्मिक जीवन में प्रगति के लिए ईश्वरदर्शन की हार्दिक प्यास ,ईश्वरदर्शन की व्याकुलता, पवित्र जीवन और शिशु सा सरल ह्रदय बहुत आवश्यक हैं। श्री रामकृष्ण देव में ये सभी गुण कूट कूट कर भरे हुए थे। इसलिए वे  माँ जगदम्बा की पूजा अर्चना बहुत मनोयोग से करते थे। उनके  ह्रदय में मां के दर्शन करने की प्यास बहुत गहरी थी। एक दिन पूजा  करते  करते उन्होंने प्रश्न किया “माँ क्या तुम सचमुच ही हो अथवा यह मेरे मन की कल्पना  मात्र  है–वास्तविकता विहीन एक कविता मात्र ? यदि तुम्हारी सत्ता है तो मैं  तुम्हें क्यों नहीं  देख सकता ?” श्री रामकृष्णदेव  की ईश्वरदर्शन की प्यास दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी। वे हर वक्त ध्यान व प्रार्थना  में लीन रहने लगे। एक दिन वे बहुत ही हताश हो गए। उस दिन की वेदना को बाद में उन्होंने इन शब्दोँ में व्यक्त किया “तीव्र वेदना में मैंने स्वयं से ही कहा ,’इस जीवन का अब क्या प्रयोजन है ?’ अचानक मेरी नजर मंदिर में लटकने वाले खड्ग पर पड़ी। तत्काल ही मैंने खड्ग से अपना जीवन समाप्त करने का निश्चय किया। एक पागल व्यक्ति की भांति  मैंने दौड़कर खड्ग उतार ली। और तब –मुझे माँ का चमत्कारी दर्शन हुआ  और मैं अचेत होकर गिर पड़ा। ” 

आध्यात्मिक जीवन जीने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को अपनी जीवनशैली और अपने चिंतन  को  सरल बनाना चाहिए। उसे चालाकी ,हेरा-फेरी और अनावश्यक होशियारी से बचना चाहिए। हर काम पूरी मेहनत से करना चाहिए ,लेकिन परिणाम परमात्मा पर छोड़ देना चाहिए। जितनी ईश्वरदर्शन की इच्छा अधिक होगी उतने आध्यात्मिक अनुभव अधिक होंगे।सच्चे आध्यात्मिक अनुभव हमारे समस्त व्यक्तित्व  को प्रभावित करते है। (सच्चे आध्यात्मिक अनुभव इसलिए कह रहा हूं कि कई बार हमारे मन की कल्पनायें भी हमें भ्रमित कर सकती हैं और हमें आध्यात्मिक अनुभव का आभास दे सकती हैं ) आध्यात्मिक अनुभव के बाद हम आश्चर्यचकित रह सकते हैं ,गहरी शांति और आनंद से भर सकते हैं ,चारों तरफ व्याप्त यह अस्तित्व हमें बिल्कुल तरोताज़ा महसूस हो सकता है ,कई बार हम भयभीत भी हो सकते हैं। मैं कोई आध्यात्मिक गुरु या संत नहीं हूं। फिर भी जो थोड़ा बहुत अनुभव मुझे है उसके आधार पर ये बातें आपसे सांझा कर रहा हूं। आध्यात्मिक अनुभव अंधेरे में बल्ब जलाने जैसे नहीं होते। वे ऐसे  होते हैं जैसे घनी अँधेरी रात में बिजली कोंध जाए। हमारा समस्त अस्तित्व आलोकित हो उठता है और फिर गहन अन्धकार ,पहले से भी घना। जैसे एक मिनट के लिए पिया मिलन  हो जाये और फिर विरह की रात। इसलिए प्रत्येक अनुभव के बाद भक्त की प्यास और भी बढ़ जाती है।

उक्त अनुभव के समय श्री रामकृष्ण देव की आयु लगभग 20 -21 वर्ष ही रही होगी। उन पर भी इस अनुभव का गहन प्रभाव पड़ा।  इस घटना के बाद उनके लिए मंदिर में पूजा -अर्चना का कार्य कर पाना असंभव हो गया। उनके रिश्तेदार उन्हें पागल समझकर वापस  कामारपुकुर ले आए  और उनके विवाह की व्यवस्था करने लगे। शायद उन्होंने सोचा होगा की विवाह के बाद श्री रामकृष्णदेव घर गृहस्थी  के चक्र में उलझ कर इस तरह का व्यवहार करना बंद कर देगें। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने विवाह के लिए मना भी नहीं किया। 1859 ईस्वी में पड़ोसी गांव जयरामवाटी की  एक बालिका सारदा मुखोपाध्याय से उनका विवाह हो गया। 1860 ईस्वी में वे वापिस दखिणेश्वर आ गए।

इस बार वे एक बहुत बड़े आध्यात्मिक झंझावात में फंस गए। वे बाहरी परिवेश को बिल्कुल भूल गए। पत्नि ,परिवार ,घर और यहाँ तक की उन्हें शरीर का भान  भी नहीं  रहा। बाद में  श्री  रामकृष्णदेव ने इन दिनों का वर्णन इस प्रकार किया था :

“उस समय एक आध्यात्मिक तूफान शान्त नहीं होता था कि दूसरा आकर  घेर लेता था। लगता था की मैं किसी झंझावात में फंस गया हूं,जिसमें मेरा जनेऊ भी उड़कर गिर जाया करता था। मैं मुश्किल से ही अपनी धोती संभाल सकता था। कभी कभी मैं  अपना मुंह खोलकर देखता था तो लगता था कि दोनों जबड़े  स्वर्ग से पाताल तक फैल रहे हैं। मैं दुखित होकर ‘माँ ,माँ। ‘ चिल्लाया करता था। मुझे ऐसा अनुभव होता था कि मुझे माँ को उसी तरह आत्मसात करना है ,जैसा मछुआरा जाल डालकर  मछली को खींचता है। सड़क पर घूमती हुई एक वेश्या को मैंने देखा तो मैंने अनुभव किया कि वे सीता हैं जो रावण विजय के बाद अपने पति राम से मिलने जा रही हैं। एक पेड़ के सहारे एक के ऊपर दूसरे पैर को तिरछा रख कर खड़े हुए एक अंग्रेज बालक को देख कर मैं कृष्ण के भाव मेँ विभोर होकर बाह्यज्ञान शून्य हो गया। कभी कभी मैं और एक कुत्ता एक ही पत्तल मेँ भोजन करते। मेरे केश जटा के समान होकर आपस में उलझ गए थे। पूजा के दौरान सिर के बालों में चावल के दाने गिर जाते थे और उन जटायुक्त केशों में पक्षीगण बैठकर दाने उठाकर खाते थे। मेरे निःस्पन्द और निश्चल शरीर पर से साँप रेंगते हुए चले जाते थे।

साधारण जीव उस भीषण व्याकुलता का चतुर्थांश भी न सह पाता क्योंकि वह उसे जला कर राख कर देती। पूरे छः वर्ष तक मुझे नींद नहीं आई। मन में इच्छा करने पर भी पलकें झपकती नहीं थी। दर्पण के सामने खड़ा होकर आखों में उँगली डालकर पलकें झपकाना चाहता था किन्तु पुतली को उँगली से  छूने पर भी पलकें खुली ही रहती थी। यह देखकर मुझे बड़ा डर लगता था और मैं रोते -रोते कहा करता था ,”माँ ,क्या तुम्हें पुकारने से ऐसा ही होता है। मैंने अनन्य भाव से तेरी इतनी भक्ति की और तूने इसके बदले यह भयंकर रोग दिया है। “मैं इस प्रकार कह कर रोया करता था किन्तु अचानक भावसमाधि से विलक्षण  आनन्द उत्पन्न हो जाता था। शरीर बिल्कुल तुच्छ प्रतीत होने लगता था। फिर माँ दर्शन देती और दिलासा देते हुए सभी प्रकार के भयों को तिरोहित कर देती थी। “

उक्त वर्णन से पाठकों को अनुभव हो गया होगा कि परमहँस श्री रामकृष्ण देव जी कितने विलक्षण संत थे और  देवी दर्शन की उनकी अभिलाषा कितनी सच्ची और गहन थी जिसके लिए वे अपने सभी सुखों ,यहां तक कि अपना जीवन तक त्यागने के लिए भी तैयार थे। वे माँ काली से ऐसे बात करते थे जैसे हम आपस में बातें करते हैं। उनके किसी शिष्य ने एक पुस्तक भी लिखी है “A Saint who talked with Gods”(एक संत जो भगवान से बात करते थे ).श्री रामकृष्ण देव जी व उनकी शिक्षाओं के बारे में विस्तृत वर्णन “श्रीरामकृष्णवचनामृत “तथा “श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग ” में पढ़ा जा सकता है। ये पुस्तकें उनके शिष्य श्री महेन्द्रनाथ गुप्त व स्वामी सारदानंद जी द्वारा लिखित है। इनके द्वारा लिखा गया विवरण विश्वसनीय है क्योँकि ये दोनों शिष्य अक्सर उनके साथ रहते थे। उनके प्रधान शिष्य ,स्वामी विवेकानन्द जी ने भी अपने गुरुदेव के सन्देश की विस्तृत व्याख्या की है। 

इससे पहले कि मैं श्री रामकृष्ण देव जी के आगे के जीवन के बारे में  आपको बताऊँ एक महत्वपूर्ण बात को समझना अत्यन्त आवश्यक है। समस्त विश्व में भिन्न भिन्न प्रकार के जितने भी मत हैं वे वास्तव में एक ही शिखर को छूने के भिन्न भिन्न मार्ग हैं। माउन्ट एवरेस्ट की चोटी  पर पहुंचने के लिए हम अपनी यात्रा हिमाचल प्रदेश की तरफ से करें ,उत्तराखंड की तरफ से करेँ ,नेपाल की तरफ से करें या तिब्बत की तरफ से करें  यह हमारी अपनी स्वतंत्रता है। हर रास्ते में  निःसंदेह नजारे अलग अलग होंगे। पर चोटी पर पहुँच कर पता चलता है कि सभी रास्ते एक ही शिखर पर पहुंचते है जिसका नाम है माउन्ट एवरेस्ट। शिखर पर पहुंच क़र सब रास्ते आपस में मिल जाते हैं। श्री रामकृष्ण देव जी आध्यात्मिक जगत के एक मात्र ऐसे संत है जिन्होंने इस बात को व्यावहारिक रूप से सिद्ध करके दिखाया। 1866 ईस्वी में श्री रामकृष्ण देव ने एक सूफी संत से इस्लाम की साधना सीखी। बाद में उन्होंने अपने शिष्यों को इन दिनों का वर्णन इस प्रकार किया। “मैं श्रद्धापूर्वक अल्लाह का नाम लेता था और दिन में पांच बार नमाज पढ़ता था। उस भाव में मैं तीन दिन रहा। मैंने उस पथ की साधना की पूर्ण अनुभूति प्राप्त की थी। 1874 ईस्वी में उन्होंने मेडोना और ईसामसीह के दर्शन भी प्राप्त किये थे।

कुछ समय तक उन्होंने सखी सम्प्रदाय की साधना भी की थी। सखी सम्प्रदाय के लोग समस्त संसार में केवल भगवान श्री कृष्ण को ही पुरुष मानते हैं और बाकी सभी प्राणियों को स्त्री। अपने आप को वे भगवान श्री कृष्ण की प्रेमिका मानते हैं। श्री रामकृष्ण देव जी ने जब सखी सम्प्रदाय की साधना शुरू की तो उनके सभी हाव भाव स्त्रिओं जैसे होने लगे। उनका उठना ,बैठना , बात करना ,चलना फिरना सब स्त्रिओं की भांति होने लगा। ओशो ने तो अपने प्रवचनो में यहाँ तक कहा  है कि  उनके शरीर में जैविक परिवर्तन भी आने लगे। यह इस बात का प्रमाण है कि वे जो भी साधना करते थे उसमें अपने व्यक्तित्व को  पूर्ण समग्रता से समर्पित कर  देते थे।

एक तांत्रिक सन्यासिनी भैरवी ब्राह्मणी ने 1861 ईस्वी में उन्हें तंत्रसाधना की शिक्षा दी। तदुपरान्त एक जटाधारी वैष्णव साधु की देख -रेख में उन्होंने पहले वात्सल्य भाव व बाद में प्रेमभाव की साधना की। बाद में तीन वर्ष पश्चात् 1864 ईस्वी में एक वेदांती साधु ने ,जिनका नाम तोतापुरी था ;उन्हें धार्मिक साधना  के सर्वोच्च  शिखर कि अनुभूति पर पहुँचा दिया। तोतापुरी के सानिध्य में उन्होंने निर्विकल्प समाधि प्राप्त की। उस अवस्था में साधक ब्रह्म के साथ एकात्मता अनुभव करता है। इस प्रकार विभिन्न धर्मपंथों से ईश्वर की अनुभूति प्राप्त करके श्री रामकृष्ण परमहंस ने घोषणा की थी ,”जितने मत उतने पथ “1 इस प्रकार श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपने जीवन द्वारा यह दिखा दिया कि धर्म का अर्थ न तो शब्द होता है ,न नाम और न सम्प्रदाय। वस्तुत ईश्वरानुभूति ही असली धर्म है। 

श्री रामकृष्ण परमहंस जी में आध्यात्मिक अनुभव को प्रेषित करने की क्षमता भी अद्भुत थी। ईश्वर की अनुभूति को प्राप्त हर बुद्धपुरुष आध्यात्मिक अनुभव को दूसरों में भिन्न भिन्न विधियों द्वारा प्रेषित करता है। श्री रामकृष्ण परमहंस देव जी ऐसी कई विधियों का प्रयोग करते थे। वे कभी किसी की जिव्हा पर कोई मंत्र लिखते थे ,कभी किसी की छाती पर हाथ रखते थे और कभी कभी तो किसी को अपना कोई अंग छुवा देते थे। कई भक्तों को उन्होंने अपने पैर का अंगूठा मात्र छुवा कर आध्यात्मिक अनुभूति प्रेषित की थी। स्वामी विवेकानंद जी को उन्होंने उनकी  छाती पर हाथ रख कर अनुभूति प्रेषित की थी। परमहंस श्री रामकृष्ण देव जी के सम्पर्क में आने से पहले स्वामी विवेकानंद जी  बहुत कठिन परिस्थितिओं में से गुजर रहे थे। कभी कभी तो उन्हें भूखा भी रहना पड़ता था। एक बार उन्होंने अपनी यह कठिनाई श्री रामकृष्ण देव जी को बताई। श्री रामकृष्ण देव जी ने उन्हें कहा “जा अन्दर जाकर मां से मांग ले। स्वामी जी तीन बार अन्दर गए । पर हर बार मां का रूप देखकर इतने आनंदमग्न हो गए की मां से कुछ न मांग सके। तब अंत में परमहंस देव जी ने उन्हें कहा कि जाओ आज के बाद  तुम्हारे घर में मोटे अनाज की कोई कमी नहीं होगी। इस प्रकार परमहंस देव जी लोगोँ की सांसारिक समस्याओं को हल करने की क्षमता भी रखते थे।

परमहंस श्री रामकृष्ण देव जी अपने समय के अधिकतर प्रसिद्ध पुरुषों से मिले थे जैसे –देवेन्दरनाथ टैगोर (श्री रविन्दरनाथ टैगोर के पिता ),दयानन्द सरस्वती (आर्य समाज के संस्थापक ),ईश्वरचन्द्र  विद्यासागर ,डाक्टर महेन्द्रलाल सरकार ,बंकिम चन्दर चटर्जी ,मधुसूदन दत्त व केशवचन्द्र सेन (ब्रह्म समाज के एक नेता ) आदि। परमहंस देव जी माँ से प्रार्थना करते थे  कि भक्ति भाव से भरे जिज्ञासु लोग उनके पास आयें। वैसे भी जब कोई फूल अपने परम सौंदर्य में पूरा खिल उठता है तो मधुमखियां स्वत :उसके पास रसपान करने आ जाती  हैं। 1879 से 1885 ईस्वी के बीच बहुत से गृहस्थ व सन्यासी शिष्य उनके पास आए जिनको परमहंस देव जी ने प्रशिक्षित किया तांकि वे उनके  विचारों को आगे बढ़ा सकें। कभी कभी वे लगातार दिन में बीस घंटे लोगों से ईश्वर सम्बन्धी वार्तालाप करते रहते थे। यह क्रम कई वर्षों तक चलता रहा। मानवता के लिए उनका उत्कट प्रेम किसी की सहायता से इंकार नहीं कर पाता था। अपने विचारों को लिपिबद्ध करने का कार्य उन्होंने श्री महेन्दरनाथ गुप्त को सौंपा। प्रसार का कार्य मुख्यरूप से स्वामी विवेकानन्द जी को दिया गया जिन्हे परमहंस देव जी ने अपने शिष्यों का नेता बनाया था।

1885 के मध्यभाग में श्री रामकृष्ण देव जी को गले का कैंसर हो गया। उनके शिष्यों ने उन्हें उपदेश देने से रोकना चाहा। पर उन्होंने अपने शिष्यों की सलाह मानने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा ,”मुझे  कोई परवाह नहीं है। एक मनुष्य की मदद के लिए मै ऐसे बीस हज़ार शरीरों को छोड़ दूंगा। “

परमहंस श्री रामकृष्ण देव जी ने आधुनिक युग के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण सन्देश दिया है। उनका कहना है की “मतवादों ,आचारों ,पंथों तथा गिरिजाघरों और मन्दिरों की ही चिंता मत करो। प्रत्येक मनुष्य के भीतर अस्तित्व की सारवस्तु अर्थात आध्यात्मिकता विद्यमान है ,इसकी तुलना में ये सब तुच्छ हैं और मनुष्य के भीतर आध्यात्मिकता का भाव जितना ही अधिक अभिव्यक्त होता है ,वह उतना ही जगत्कल्याण और आत्मकल्याण के लिए  सामर्थ्यवान हो जाता है। प्रथमत :इसी अध्यात्म और धर्मधन का उपार्जन करो ,किसी के भीतर दोष मत ढुंढो ,क्योंकि सभी मत ,सभी पंथ अच्छे हैं। अपने जीवन द्वारा यह दिखा दो कि धर्म का अर्थ न तो शब्द होता है ,न नाम और न सम्प्रदाय ,वरन इसका अर्थ होता है ,आध्यात्मिक अनुभूति। “आज के युग में ,जबकि हर तरफ कट्टरवाद बढ़ता जा रहा है ,उनका यह सन्देश बहुत ही महत्वपूर्ण है।

16 अगस्त 1886 को कलकत्ता के एक उपनगर काशीपुर में उन्होंने अंतिम साँस ली। रोमां रोलां ने उनकी मृत्यु पर लिखा ,”मनुष्य शरीर में वे अब नहीँ रहे। उनकी आत्मा मानवता के समस्त जीवन की शिराओं में प्रवाहित होने की यात्रा के लिए चल पड़ी। ” इस प्रकार  श्री रामकृष्ण देव ने लगभग साढ़े पचास वर्ष तक इस धरती पर आध्यात्मिकता का प्रचार किया। विशेष बात यह है कि उन्होंने अपनी जीवन शैली से लोगों को दिखाया की जीवन में आध्यात्मिकता क्यों जरूरी है।

उन दिनों कलकत्ता के कुछ इलाकों पर अभी तक फ्राँसिसिओं का शासन चलता था। कुछ क्रांतिकारी प्रवृति के लोग (और कुछ अपराधी किस्म के लोग भी) अंग्रेजों के शासन वाले इलाकों में अपनी गतिविधियों को अंजाम देकर फ्रेंच कॉलोनियों में आकर छिप जाते थे जहाँ ब्रिटिश पुलिस के सिपाही उन्हें नहीं पकड़ पाते थे। फ्रेंच कॉलोनियों में आकर वे अपने आप को सुरक्षित महसूस करते थे। श्री रामकृष्ण देव जी अक्सर कहा करते थे कि आध्यत्म एक फ्रेंच कॉलोनी की तरह है। जीवन के दुःख दर्द जब सताने लगे तो आप आध्यत्म रूपी फ़्रेंच कॉलोनी में आकर अपने आप को सुरक्षित महसूस कर सकते हैं। यहां आप बेफिक्री से रह सकते हो ।

श्री रामकृष्णदेव को लोग ठाकुर भी कहते थे। आधुनिक नौजवानों के लिए यह एक आश्चर्यजनक बात हो सकती है कि उनके अपनी पत्नी शारदादेवी से कभी कोई यौन सम्बन्ध नहीं रहे। {बंगाल की ही एक संत मां आनंदमयी (मां आनन्दमयी का असली नाम  निर्मलासुंदरी था। आनन्दमयी नाम ढाका के बाबू ज्योतिचंद्र राय ने रखा था )के बारे में भी यही कहा जाता है कि उनके अपने पति रमणीमोहन चक्रवर्ती से कोई यौन सम्बन्ध नहीं थे। मां आनंदमयी के भक्त लोग उनके पति को भोलानाथ के नाम से बुलाते थे। बाद में वे इसी नाम से प्रसिद्ध हो गए। मां आनन्दमयी पैदा तो बंगाल में हुई थी पर बाद में वे ऋषिकेश में रहने लगी थी। 30 -04 -1896 से 27 -08 -1982 तक }.उनकी सासु मां ने एक बार किसी को कहा था ,”मैनें अपनी शारदा का विवाह एक ऐसे पागल पति से कर दिया है जिसके कारण वह साधारण वैवाहिक जीवन का सुखभोग नहीं कर सकती या उसके कोई बच्चा भी नहीं हो सकता जो उसे मां कह कर पुकार सके। “एक दिन उन्होंने अपनी सासु मां की बात सुन ली और कहा ,”मां ,इसका दुःख मत करो। आगे चलकर आप देखेंगी कि तुम्हारी पुत्री को मां कहने वाले इतने हो जाएँगे कि उसके कान मां -मां की पुकार सुनते -सुनते थक जाएँगे। “और यही हुआ। परमहंस देव जी के सभी शिष्य उन्हें मां कह कर बुलाते थे। 

श्री रामकृष्णदेव जी के बारे में चाहे कितना भी लिखा जाए वह थोड़ा ही है। कहा भी है “हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। “न तो कोई हरि का अंत है न हरि कथा का। श्री रामकृष्ण देव जी ऋषि मुनियों के जमाने में नहीं हुए थे। उस समय भारत की पुरातन काल गणना के हिसाब से सतयुग भी नहीं था। जीवन की सभी कठिनाइयाँ और सभी संघर्ष शायद आज से कुछ ज्यादा ही थे। फिर भी उन्होंने न केवल एक आध्यात्मिक जीवन जीया बल्कि आध्यात्म का प्रचार प्रसार भी किया। आज भी वह प्रचार प्रसार रुका नहीं है। जगह जगह स्थापित रामकृष्ण आश्रम और लाखों सन्यासी उनके जीवन -दर्शन के प्रचार में व दीन -दुखियों की सेवा में सदैव तैयार रहते है। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि अध्यात्म न तो कभी पुराना होता न अप्रसांगिक होता। धर्म हमेशा है ,हमेशा रहेगा और सदा–सर्वदा  प्रासांगिक रहेगा। अंत में उनके त्याग की पराकाष्ठा कि एक कहानी कह कर मैं अपनी बात को विश्राम दूँगा। एक बार उनके वेतन के हिसाब में कुछ गलती हो गई। उनकी पत्नी ने मंदिर के व्यवस्थापक से इस बारे में बात करने के लिए कहा। किन्तु उन्होंने कहा ,”कितनी लज्जा की बात है। क्या मैं हिसाब -किताब की चिन्ता करूँगा ?” कर्मफल के बारे में उनका मानना था कि कर्म का फल अटल है। किन्तु ईश्वर का नामजप करके तुम इसकी तीव्रता को कम कर सकते हो। यदि तुम्हें हल के फाल के बराबर घाव लगनी है तो वह कम होकर सुई चुभने के बराबर हो सकती है। जप और तपस्या के द्वारा कर्मफल को काफी मात्रा में निष्प्रभावी बनाया जा सकता है। 

  परमहंस श्री रामकृष्ण देव जी के बारे में लिखने के लिए मुझे स्वामी चेतनानन्द द्वारा लिखित पुस्तक “श्री रामकृष्णदेव –जैसा हमने उन्हें देखा “से तथा ओशो के कुछ प्रवचनों से काफी सहायता मिली है। मैं उनका ह्रदय से आभारी हूँ। सतों के जीवन की कुछ कहानियां यदि छोटे बच्चों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित की जायें तो वे हमारे बच्चों के चरित्र निर्माण में काफी सहायक हो सकती हैं। जब तक सरकार ऐसा नहीं करती तब तक अध्यापकों और मां -बाप को यह उत्तरदायित्व  निभाना चाहिए। बचपन में दिए गए संस्कार बच्चों के जीवन की नीव रख देते हैँ कि वे किस तरह का जीवन जीयेंगे। कुछ वर्ष पहले तक भारत के लगभग हर घर में बच्चों को धार्मिक संस्कार दिए जाते थे। आज भी ज्यादातर घरों में यही होता है।  मेरा यह अनुभव रहा है कि जिन घरों का माहौल आध्यात्मिक हो उन घरों में सांसारिक समस्याएं कम आती हैं। आती भी हैं तो जल्दी सुलझ भी जाती हैं। उनसे मिलने वाला दुःख तो निश्चित बहुत कम रह जाता है। हर घर में कुछ समय पूजा -पाठ ,ध्यान ,सामूहिक आरती व् भजन गायन इत्यादि के लिए निश्चित होना चाहिए। छः महीने प्रयोग के तोर पर कर के देखिए आपका छोड़ने का मन नहीं करेगा। 

(हरि ॐ तत सत )

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