संतों की वाणी –ओशो

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि ‘ध्यान असम्भव है। घर में करने बैठते हैं तो पत्नी जोर से थालियां गिराने  लगती है ,बर्तन तोड़ने लगती है ,बच्चे शोरगुल मचाने लगते हैं ,ट्रेन निकल जाती है ,रास्ते पर कारें हॉर्न बजाती हैं —–ध्यान करना बहुत मुश्किल है ,सुविधा नहीं है। ‘तुम ध्यान जानते ही नहीं। ध्यान का यह अर्थ नहीं है कि पत्नी बर्तन न  गिराए ,बच्चे रोएं न ,सड़क से गाड़ियां न निकले ,ट्रेन न निकले ,हवाई जहाज न गुजरे। अगर तुम्हारे ध्यान का ऐसा मतलब है ,तब तो तुम अकेले बचो तभी ध्यान हो सकता है —-पशु -पक्छी भी न बचें। 

क्योकि एक आदमी ऐसा ध्यानी था,वह घर छोड़ कर भाग गया। वह जाकर एक पेड़  के नीचे बैठ गया। उसने कहा अब यहां तो ध्यान होगा। एक कौऐ ने बीट कर दी , बौखला उठा। उसने कहा : ‘हद हो गई। किसी तरह पत्नि से छूटे ,यह कौआ मिल गया।पत्नी का तो शायद कभी कुछ बिगाड़ा भी हो कभी ,इस कौऐ का क्या बिगाड़ा है।’  कौए को पता भी नहीं है कि ध्यानी नीचे बैठा है। कौए को कुछ लेना देना नहीं है।

तुम्हारा ध्यान अगर इस भांति का है कि हर चीज बंद हो जानी चाहिए तब तुम्हारा ध्यान होगा ,तो होगा ही नहीं असंभव है। जगत में बड़ी गति चलती है। जगत गति है। इसलिए तो जगत कहते हैं। जगत यानि जो गत ;जा रहा है ;भागा जा रहा है। जिसमें गति है ,वही जगत। गतिमान को जगत कहते हैं। 

तो इस जगत में सब तरफ गति हो रही है —-नदियां भाग रही हैं ,पहाड़ बिखर रहे , वर्षा होगी ,बादल घुमड़ेंगे ,बिजली चमकेगी —सब कुछ होता रहेगा। इससे तुम भागोगे कहां ? तो तुमने ध्यान की गलत धारणा पकड़ ली। ध्यान का अर्थ नहीं है कि बर्तन न गिरें। ध्यान का अर्थ है बर्तन तो गिरें ,लेकिन तुम भीतर इतने शून्य रहो कि बर्तन की आवाज गूंजे और निकल जाए। कभी किसी शून्य घर में जा कर तुमने जोर से आवाज़ की ? क्या होता है ? सूने घर में आवाज़ थोड़ी देर गूँजती  है और  चली जाती है ; सूना घर फिर सूना हो जाता है , कुछ विचलित नहीं होता। 

तो ध्यान को तुम स्वीकार बनाओ। तुम्हारा ध्यान अस्वीकार है , तो हर जगह अड़चन आएगी। अक्सर ऐसा होता है कि घर में एकाध आदमी ध्यानी हो जाए तो घर भर की मौत हो जाती है। क्योंकि वे पिता जी ध्यान रहे हैं तो बच्चे खेल नहीं सकते, शोरगुल नहीं मचा सकते। पिता जी  ध्यान कर रहे हैं ;जैसे पिता जी का ध्यान करना सारी दुनिया की मुसीबत है ! और अगर जरा सी अड़चन हो जाए तो पिता जी बाहर निकल आते हैं अपने मंदिर के और शोरगुल मचाने लगते हैं की ध्यान में बाधा पड़ गई। 

जिस ध्यान में बाधा पड़ जाए ,वह ध्यान नहीं। वह तो अंहकार का ही खेल है ,क्योंकि अहंकार में ही बाधा पड़ती है। तुम वहां अकड़ कर बैठे थे ध्यानी बने ,तुम अहंकार का मजा ले रहे थे। जरा सी बाधा कि तुम आ गए। 

यह कोई ध्यान नहीं है। ध्यान का तो इतना ही अर्थ है कि अब जो भी होगा मुझे स्वीकार है, मैं नहीं हूं ;जो हो रहा है ,हो रहा है ;  जो हो रहा है वह होता रहेगा। तुम खाली बैठे। बर्तन टूटा ,आवाज़ आई ,गूंजी , तुमने सुनी ,जरुर सुनी ;लेकिन तुमने इससे कोई विरोध नहीं किया कि ऐसा नहीं होना चाहिए था। 

ध्यान एकाग्रता नहीं है ;ध्यान सर्व-स्वीकार है। पक्छी गाएँगे ,आवाज़ करेंगे ,राह पर लोग चलेंगे ,कोई बात करेगा ,बच्चे हंसेंगे  —सब होता रहेगा ,तुम शून्यवत बैठे रहोगे।सब तुममे से गुजरेगा  पर तुम्हे सब स्वीकार होगा।तूफ़ान तो आते रहेंगे ,आंधियां आती रहेंगी, छप्पर गिरते  रहेंगे ;लेकिन अब तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।

तुम जीवन में होते हो ,फिर भी तुम्हें कुछ छूता नहीं। बाजार में खड़े और तुम मंदिर में ही होते हो। दुकान पर बैठे ,ग्राहक से बात करते ,तुम किसी परलोक में होते हो। उठते -बैठते ,घर -द्वार सम्हालते ,बच्चे -पत्नि की फिक्र करते —-फिर भी निश्चिंत रहते हो। जल में कमलवत। जीवन में इस तरह रहो जैसे अभिनय हो। 

ओशो ने ध्यान की बहुत विधियां बताई हैं। मुख्य रूप से वे सभी विधियां ओशो की दो पुस्तकों में संकलित हैं। “रजनीश ध्यान योग ” तथा “ध्यान -प्रथम व अंतिम मुक्ति “–जो लोग भी ध्यान मार्ग से साधना करना चाहते हैं उनके लिए ये दोनों पुस्तकें बहुत उपयोगी हैं। ओशो ने ऊपर सही कहा है कि अगर हम ध्यान करते हैं तो उसके कारण हमारे घर में या पड़ोस में किसी को कोई असुविधा नहीं होनी चाहिए। ध्यान का यह अर्थ नहीं है कि हमारे चारों और बिल्कुल शोर न हो। अगर ज्यादा असुविधा हो तो आप शुरू शुरू में इअर प्लग्स (ear plugs) का उपयोग कर सकते  हैं। एक निश्चित समय और निश्चित स्थान पर ध्यान करना बहुत उपयोगी रहता है। आध्यात्मिक साधना चाहे जो भी हो और चाहे वह कितने  ही कम समय के लिए की जाये उसमें निरन्तरता (continuity) होना बहुत आवश्यक है। मैं शास्त्र से नहीं अपने अनुभव से कह रहा हूं कि ध्यान कि एक बार आदत पड़ जाए तो कहीं भी ध्यान किया जा सकता है। वर्ष 2003 से वर्ष 2007 तक मैं भिवानी से हिसार दैनिक यात्री था। समयाभाव के कारण मैं ट्रेन में ही ध्यान करता था। इस प्रकार दैनिक यात्री होने के बावजूद मैं सुबह -शाम तीन घण्टे का समय ध्यान के लिए निकाल लेता था। हम सफर में क्या करते हैं ? गप्पे हांकते हैं या कुछ लोग ताश खेलते हैं। दैनिक यात्री ज्यादातर ताश खेलना पसन्द करते हैं। मुझे तो आजतक ताश खेलने आते नहीं। अपने सहयात्रिओं के लिए तो मैं बिल्कुल अनुपयोगी था। फिर भी वे मुझे बैठने की सीट ऑफर कर देते थे। ताश खेलने के लिए तो आड़े -तिरछे बैठ के भी चल सकता है। पर ध्यान के लिए वे मुझे आरामदायक स्थान दे देते थे। इस प्रकार सफर के बाद मैं बिल्कुल थकावट महसूस नहीं करता था और प्रसन्नचित रहता था। ध्यान आजतक भी मुझे बहुत प्रिय है। इसके कारण ही मैं कभी बोर नहीं होता और हमेशा शांत व प्रसन्नचित रहता हूं। ध्यान में रूचि होने से आप बहुत सी बुरी आदतों से बच जाते हो। निरर्थक बातों में आपकी कोई दिलचस्पी नहीं रहती। आपकी कुशलता बढ़ जाती है। आप एकांतप्रिय  हो जाते हैं और बुरी संगत से सहज छुटकारा हो जाता है। आप मन के पार हो जाते हैं और आपका व्यक्तित्व गुलाब के फूल की तरह खिल उठता है। आपके चारों और सुगन्ध बिखर जाती है। आप समाधान को उपलब्ध हो जाते हैं। ओशो ने कहा है ,”mind is the problem, meditation is the way” -मन समस्या है ,ध्यान समाधान है। ध्यान की नियमित आदत बनाएं। इसमें लाभ ही लाभ हैं –सांसारिक भी और आध्यात्मिक भी। 

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