हर वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल नवमी तक तथा आश्विन शुक्ल एकम से आश्विन शुक्ल नवमी तक नवरात्र पर्व मनाया जाता है। नवरात्र के नो दिनों में प्रत्येक दिन देवी के अलग रुप की पूजा अर्चना की जाती है। प्रत्येक देवी का स्वरुप,पूजाविधि व फल अलग अलग कहे गए हैं। इन नौ देवियों के नाम क्रमशः शैलपुत्री ,ब्रह्मचारणी ,चंद्रघंटा ,कुष्मांडा ,स्कंदमाता ,कात्यायनी ,कालरात्रि ,महागौरी व सिद्धिदात्री हैं। मैं पिछले कई वर्षों से लगभग हर वर्ष नवरात्र के व्रत करता हूं। ये व्रत मैंने क्यों शुरु किए और किस वर्ष से शुरु किए इसकी भी एक कहानी है।
सौभाग्य से मेरा जन्म एक धार्मिक परिवार में हुआ। माता -पिता साधु-संतो की सेवा में खुश रहते थे। इसलिए साधु-संतों का घर में आना-जाना लगा रहता था। अक्सर संत हमारे घर कई कई दिन ठहरते थे। जब भी परिवार के सामने कोई कठिन समस्या आती तो पिता जी संतों से विनती करते और भगवान से प्रार्थना करते। हर बार कठिन परिस्थिति से सम्मानजनक रुप से बाहर निकलने का कोई न कोई रास्ता निकल ही आता था।
वर्ष 2003 तक मेरे माता -पिता का स्वर्गवास हो चुका था। हमारे पारिवारिक गुरु जी भी समाधि ले चुके थे। एक नाथपंथी साधु, जो लगभग हर वर्ष हमारे पास आकर ठहरते थे और जिनकी कृपा से हमारा परिवार कई बार कठिन हालातों से बाहर आ चुका था,उन्होंने भी कुछ वर्षों से हमारे घर आना बंद कर दिया था।मैंने उन्हें दिव्य दृष्टि से ही कई राष्ट्रीय घटनाओं की भविष्य वाणी करते देखा था।उन्होंने मेरे बारे में जो जो भविष्य वाणियां की थी वे बिल्कुल ठीक साबित हुई। ज्योतिष शास्त्र में मेरी गहन रुचि के पीछे उनकी भविष्य वाणियों का भी बहुत योगदान रहा है। मैं हालांकि वर्ष 1988 में ही ओशो का शिष्य हो गया था पर फिर भी पारम्परिक धर्म से भी विमुख नहीं हुआ था।उस समय एक व्यक्तिगत समस्या के समाधान हेतु मैंने प्रथम बार नवरात्र व्रत करने का फैंसला किया।
लेकिन मैंने नवरात्र कैसे किए वह जानने से पहले हम यह जानेंगे कि नवरात्र के नो दिन किन चक्रों कि साधना से सम्बन्धित हैं।आयुर्वेद के अनुसार हमारे शरीर में आठ चक्र होते हैं जिनसे निकलने वाली उर्जा ही शरीर को जीवन देती है। आयुर्वेद में योग ,प्राणायाम और साधना द्वारा इन चक्रों को सक्रिय करने के तरीकों के बारे में बताया गया है। पतंजलि का अष्टांग योग भी इन्ही चक्रों से सम्बन्धित है। प्रत्येक चक्र का नाम और शरीर में उसके स्थान के सम्बन्ध में संक्षिप्त जानकारी निम्न प्रकार से है।
1 मूलाधार चक्र :यह चक्र मलद्वार और जनेन्द्रिय के बीच रीढ़ की हड्डी के मूल में सबसे निचले हिस्से से सम्बंधित है। यह मनुष्य के विचारों को नकारात्मकता से सकारात्मकता की और ले जाता है।
2 स्वाधिष्ठान चक्र : यह चक्र जनेन्द्रिय के ठीक पीछे रीढ़ में स्थित है। इसका संबंध मनुष्य के अचेतन मन से होता है।
3 मणिपूर चक्र : रीढ़ की हड्डी में नाभि के ठीक पीछे मणिपूर चक्र होता है। शरीर की पाचन क्रिया और अधिकांश आंतरिक गतिविधियां इसी चक्र द्वारा संचालित होती हैं।
4 अनाहत चक्र : ह्रदय के दाईं ओर , सीने के बीच वाले हिस्से के ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी में अनाहत चक्र होता है। यह चक्र हृदय ,फेफड़ों और नाड़ी संस्थान की गतिविधियों व सुरक्षा को नियंत्रित करता है।
5 . विशुद्धि चक्र : यह चक्र गले के गढ़े के ठीक पीछे थायरॉयड व पैराथायरॉइड के पीछे रीढ़ की हड्डी में स्थित है। यह चक्र शारीरिक वृद्धि ,भूख प्यास व ताप को नियंत्रित करता है।
6 आज्ञा चक्र : दोनों भौहों के ठीक मध्य के पीछे रीढ़ की हड्डी के ऊपर पीनियल ग्रंथि के पास आज्ञा चक्र स्थित होता है। यह चक्र हमारी इच्छाशक्ति व प्रवृति को नियंत्रित करता है। हम जो कुछ भी जानते या सीखते हैं उस संपूर्ण ज्ञान का केन्द्र आज्ञा चक्र ही है।
7 मनश्चक्र या ललना चक्र : यह चक्र हाइपोथैलेमस में स्थित है। इसका कार्य ह्रदय से संबंध स्थापित करके मन व भावनाओं के अनुरुप विचारों ,संस्कारों व मस्तिष्क में होने वाले स्रावों ( Hormones) का निर्माण करना है। इसे हम भावनाओं का स्थान भी कह सकते हैं।
8 सहस्त्रार चक्र : यह चक्र पीयूष ग्रंथि (Pituitary Gland) से सम्बंधित है और सभी प्रकार की आध्यात्मिक शक्तियों का केंद्र है।
इन आठ शक्ति केंद्रों में स्थित शक्तियां ही हमारे शरीर को ऊर्जान्वित ,संतुलित व क्रियाशील करती हैं। इन्ही से शारीरिक ,मानसिक विकारों व रोगों को दूर कर अंत:चेतना को जागृत करने का नाम ही योग है। पतंजलि केअष्टांग योग में यम ,नियम ,आसन ,प्राणायाम ,प्रत्याहार ,धारणा ,ध्यान व समाधि की जो बात की गई है वह भी इन्ही चक्रों से सम्बन्धित है और पंतजलि का हर योग किसी न किसी चक्र को जागृत करता है। इस शताब्दि के महान रहस्यदर्शी ओशो कहते है कि आध्यात्मिक साधना द्वारा जब आप अपने अंतस में प्रवेश करते हैं तो चक्र वास्तव में आपकी ऊर्जा के पड़ाव के रुप में काम करते हैं और इनकी संख्या सात से दस तक होती है। इसीलिए अलग अलग संतों ने इनकी संख्या अलग अलग बताई है। परन्तु इस पर विस्तार से हम फिर कभी चर्चा करेंगे। अब हम मूल विषय पर लौटते हैं।
जैसा कि हम सभी जानते हैं प्रथम नवरात्र को देवी शैलपुत्री की पूजा की जाती है। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। कहा जाता है कि इनके पूजन से मूलाधार चक्र जाग्रत होता है।मातारानी के नवरात्रों का नौ दिन का जो पाठ किया जाता है (लक्ष्मी प्रकाशन,दिल्ली द्वारा प्रकाशित) उस पुस्तक में लिखा है कि प्रथम दिन की पूजा में योगीजन अपने मन को “मूलाधार ” चक्र में स्थित करते हैं। मैंने इस पठन से साधना का एक सूत्र ग्रहण किया। सुबह की पूजा अर्चना के बाद मैंने ऑंख बंद करके मूलाधार चक्र पर ध्यान केंद्रित किया और यह भाव किया की मेरा मूलाधार चक्र खुल रहा है। दिन में भी जब मुझे कुछ समय मिला मैंने आँख बंद करके मूलाधार चक्र पर ध्यान केंद्रित किया और यह भाव किया की मेरा मूलाधार चक्र खुल रहा है। यह क्रिया दिन में दैनिक कार्यों के बीच में कुछ क्षण निकाल कर मैंने कम से कम तीस -चालीस बार दोहराई। इसी प्रकार मैंने दूसरे दिन स्वाधिष्ठान चक्र की साधना की लेकिन दूसरे दिन मैंने पहले और दूसरे दोनों चक्रों की साधना की। इस प्रकार आठवें नवरात्र तक मैं सहस्त्रार चक्र की साधना तक पहुंचा। हमारे परिवार में आठवें नवरात्र को देवीपूजन होता है। उस दिन देवी का प्रसाद बनता है और कन्या पूजन किया जाता है। नवें नवरात्र को मैंने व्रत तो नहीं किया लेकिन देवी पूजन के बाद मैंने सभी चक्रों की साधना की।
विशेष बात यह रही की इससे पहले मैंने कभी भी एक दिन का भी व्रत नहीं किया था। व्रत शुरु करने से पहले मुझे खुद को भी सदेंह था की मैं व्रत पूरे कर पाऊंगा या नहीं। प्रभु कृपा से मुझे पहले नवरात्र की कथा में ही साधना का एक महत्वपूर्ण सूत्र मिल गया था जिसकी वजह से न केवल मैंने सभी नवरात्र सरलता से पूरे कर लिए बल्कि किसी भी दिन मुझे ऊर्जा में कोई कमी महसूस नहीं हुई। ध्यान -साधना में भी मेरी अच्छी प्रगति हुई।तब से मैं यथासंभव हर नवरात्र में व्रत ,देवी -पूजन व चक्र साधना करता हूं। अब तो मैं प्रतिदिन की पूजा -अर्चना में बारी बारी से प्रत्येक चक्र पर कुछ समय के लिए ध्यान केंद्रित करता हूं। इस विधि से मेरी आध्यात्मिक साधना में प्रगति संतोषजनक है। आप भी अगले नवरात्रों में चक्र साधना करके देखें। मुझे विश्वास है की इससे आपको निश्चित लाभ होगा। हिन्दुओं के प्रत्येक पर्व को अपनी आध्यात्मिक प्रगति के अवसर के रुप में लें और अपने जीवन में वास्तविक धर्म का स्वाद लें।