संतों की वाणी हमारी वेबसाइट का एक नया प्रयास है। इस के अंतर्गत हर माह हम किसी न किसी संत की वाणी प्रस्तुत करेंगे। भारतीय संतों की जीवनी भी प्रकशित की जाएगी। यह कालम इसलिए शुरू किया जा रहा है ताकि पाठकगण भारत के महान संतों और उनके विचारों से परिचित हो सकें।हमारा विश्वास है की नई पीढ़ी के लिए यह कालम बहुत उपयोगी रहेगा व पुरानी पीढ़ी भी उत्सुकता से इसका इंतजार करेगी। वैसे भी आध्यात्मिकता का प्रचार प्रसार व लोगों को शुद्ध व सात्विक जीवन जीने के लिए प्रेरित करना हमारी वेबसाइट के घोषित उद्देष्यों में से एक है। समय समय पर हम अपने अनुभव भी आप लोगों के साथ शेयर करते रहेंगे। कृपया अपना फीडबैक हमेँ देते रहें ताकि हम इस वेबसाइट को अधिक से अधिक उपयोगी बना सकें।
ओशो ने कहा है “बीज को स्वयं की सम्भावनाओं का कोई भी पता नहीं होता है। ऐसा ही मनुष्य भी है। उसे भी पता नहीं है की वह क्या है —क्या हो सकता है। लेकिन,बीज शायद स्वयं के भीतर झांक भी नहीं सकता है। पर मनुष्य तो झांक सकता है। यह झांकना ही ध्यान है। स्वयं के पूर्ण सत्य को अभी और यहीं (हिअर एंड नाउ ) जानना ही ध्यान है। ध्यान में उतरें –गहरे और गहरे। गहराई के दर्पण में सम्भावनाओं का पूर्ण प्रतिफलन उपलब्ध हो जाता है। और जो हो सकता है ,वह होना शुरू हो जाता है। जो संभव है ,उसकी प्रतीति ही उसे वास्तविक बनाने लगती है। बीज जैसे ही संभावनाओं के स्वप्नों से आंदोलित होता है ,वैसे ही अंकुरित होने लगता है। शक्ति ,समय और संकल्प सभी ध्यान को समर्पित कर दें। क्योंकि ध्यान ही वह द्वारहीन द्वार है जो की स्वयं को ही स्वयं से परिचित कराता है। ” (रजनीश ध्यान योग पृo 7 )
ओशो कहते हैं की ध्यान एक खिलावट है ,एक विकास है। यह तुम्हारे अंतस से ,तुम्हारी समग्रता से उपजता है। तुम्हें ध्यान की और विकसित होना है।और जैसे जैसे आप ध्यान में विकसित होते हैं ,आपके व्यक्तित्व में निम्नलिखित गुणों का विकास होना शुरू होने लगता है।
(क) गहन मौन :-मौन के नाम पर अब तक हमने जो अनुभव किया है वह शोरगुल का अभाव है। लेकिन मौन एक सर्वथा भिन्न आयाम है। मौन तुम्हारे अस्तित्व के उस केंद्रबिंदु पर है जिसके चारों ओर जीवन के सब झंझावात घटते हैं फिर भी वह अछूता रह जाता है।ओशो कहते हैं “तुम्हारे अंतर्जगत का अपना ही एक स्वाद है ,अपनी ही सुवास है ,अपना ही प्रकाश है। और वहां परम मौन है —परिपूर्ण ,असीम और शाश्वत। वहां कभी कोई शोरगुल न रहा है और न कभी होगा। कोई शब्द वहां नहीं पहुंच सकता है ,लेकिन तुम वहां पहुंच सकते हो। तुम ही मौन हो।तुम्हारी स्वसत्ता का केंद्र ही झंझावात का शांत केंद्र है। उसके चारों और जो कुछ घटता है वह उस केंद्र को प्रभावित नहीं करता। वहां शाश्वत मौन है :दिन आते हैं चले जाते हैं ;वर्ष आते हैं ,चले जाते हैं ;सदियां आती हैं और बीत जाती हैं। जीवन आते हैं और चले जाते हैं ,लेकिन तुम्हारी स्वसत्ता का शाश्वत मौन सदा वैसा ही बना रहता है —वही स्वरहीन संगीत ,वही भगवता की सुवास।”
(ख) संवेदनशीलता का विकास:- ध्यान तुममें संवेदनशीलता लाएगा–इस जगत से जुड़े होने का एक गहन भाव लाएगा। यह जगत हमारा है—ये सितारे हमारे हैं और हम यहां अजनबी नहीं हैं। आंतरिक रूप से हम इस जगत से जुड़े हुए हैं। हम इसके हिस्से हैं ,हम इसका ह्रदय हैं।और यह संवेदनशीलता तुम्हारे लिए नई मित्रताएं पैदा कर देगी—-मैत्रीभाव पौधों के साथ,पशुओं के साथ ,पहाड़ों ,नदिओं और सागरों के साथ। और जैसे जैसे प्रेम फैलता है ,मैत्री बढ़ती है ,जीवन ज्यादा समृद्ध होता जाता है।
(ग)प्रेम -ध्यान की सुवास :-ध्यान तुम्हें प्रेमपूर्ण बना देता है। तुम्हे ऐसा प्रेम चाहिए जो ध्यान से उपजा हो -मस्तिष्क से नहीं। ध्यान से जन्मा हुआ प्रेम शाश्वत होता है ,बेशर्त होता है। तब वह किसी व्यक्ति विशेष के प्रति इंगित नहीँ रह जाता है। वह कोई सम्बन्ध नहीँ होता, वरन एक गुण बन जाता है जो तुम्हें चारोँ और से घेरे रहता है। यह बिलकुल दूसरी तरह का प्रेम होता है ,यह गुणात्मक रूप से भिन्न होता है।
(घ ) करुणा :-जब तुम्हारा प्रेम एक भिखारी का नहीं वरन सम्राट का प्रेम होता है ,जब तुम्हारा प्रेम बदले में कोई मांग नहीं करता ,बस देने को तत्पर रहता है —बस देने की ख़ुशी के लिए देता है —तब उसके साथ ध्यान जोड़ दो और शुद्ध सुवास प्रगट होती है। वह है करुणा ;करुणा उच्चतम घटना है। योन पाशविक है ,प्रेम मानवीय है ,करुणा दिव्य है। योन शारीरिक है ,प्रेम मानसिक है ,करुणा अध्यात्मिक है।
(च ) अकारण सतत आनंद :-बिना किसी कारण के तुम अचानक अपने आप को आनंदित पाते हो। अब यह आनंद भंग नहीं किया जा सकता। अब कुछ भी हो जाए यह बना रहेगा। यह मौजूद है हमेशा। तुम चाहे युवा हो ,तुम चाहे वृद्ध हो ,तुम चाहे जीवित हो ,तुम चाहे मर रहे हो —-यह सदैव मौजूद है। जब तुम ऐसे आनंद को पा लेते हो जो सदा रहता है ——परिस्थितियां बदल जाती हैं पर वह चिरस्थायी है —तब तुम बुद्धत्व के करीब आ रहे हो।
(छ) प्रतिभा :प्रत्युत्तर की योग्यता :-प्रतिभा का अर्थ है प्रत्युत्तर देने की योग्यता ,क्योंकि जीवन एक प्रवाह है। तुम्हें सजग रहना है और देखना है की तुमसे क्या माँगा जा रहा है ,कि परिस्थिति की क्या चुनौती है। प्रतिभावान व्यक्ति परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करता है और मूढ़ व्यक्ति बंधे-बंधाए उत्तरों के अनुसार व्यवहार करता है। वह अपने ऊपर शास्त्रों को ढोता रहता है ; खुद के ऊपर भरोसा करने से भयभीत रहता है। प्रतिभावान व्यक्ति अपनी अंतर्दृष्टि पर भरोसा करता है ;वह अपने अंतस पर भरोसा करता है। वह खुद से प्रेम करता है और खुद का सम्मान करता है। नासमझ व्यक्ति दूसरों का सम्मान करता है। प्रतिभा को फिर से अविष्कृत किया जा सकता है। उसका एकमात्र उपाय है ध्यान।
(ज)एकाकीपन तुम्हारा स्वभाव है :-ओशो कहते हैं “एकाकीपन एक फूल है ,तुम्हारे ह्रदय में विकसित हुआ एक कमल है। एकाकीपन विधायक है,एकाकीपन स्वास्थ्य है –तुम्हारी निजता में जीने का आनंद ;तुम्हारे अन्तराकाश में जीने का आनंद। ध्यान का अर्थ है :अकेले होने का आनन्द। तुम सच ही जीवन्त होते हो जब तुम ध्यान में समर्थ हो जाते हो ,जब किसी दूसरे पर ,किसी परिस्थिति पर ,किसी अवस्था पर कोई निर्भरता नहीं रहती। और चूंकि यह तुम्हारी अपनी स्थिति होती है ,यह सदैव बनी रहती है —सुबह शाम ,दिन में रात में ,जवानी में या बुढ़ापे में ,स्वास्थय में या बीमारी में। जीवन में और मृत्यु में भी यह मौजूद होता है क्योंकि यह ऐसी चीज नहीं है जो तुम्हें बाहर से घटती हो। इसका तुम्हारे भीतर से प्रादुर्भाव होता है। यह तुम्हारा अपना स्वभाव है ,स्वरूप है।
अंतर्यात्रा परम एकाकीपन की और यात्रा है।तुम अपने साथ वहां किसी को नहीं ले जा सकते। तुम अपने केंद्र में किसी को भागीदार नहीं बना सकते। जैसे ही तुम भीतर जाते हो ,बाहर के जगत के सारे सम्बन्ध टूट जाते हैं ,सब सेतु टूट जाते हैं। एकाकीपन का उत्सव मनाओ ,अपने अंतरआकाश का उत्सव मनाओ और तुम्हारे ह्रदय में एक महान गीत फूटेगा।और यह जागरूकता का गीत होगा ,यह ध्यान का गीत होगा। ” एकाकीपन का यह गीत किसी के लिए नहीं होता है। यह ऐसे होता है जैसे ह्रदय भरा हो और गाना चाहता हो,जैसे मेघ भरा हो और बरसना चाहता हो। जब फूल खिल जाता है ,जब पंखड़िआ खुल जाती है तो सुवास फैल जाती है —बिना किसी को संबोधित किए। इसी तरह जब हमारा व्यक्तित्व ध्यान से विकसित हो जाता है तो तुम्हारे व्यक्तित्व की सुगन्ध फूल की सुवास की तरह चरों और फैल जाती है। तब तुम्हारा एकाकीपन एक नृत्य बन जाता है।
(झ)ध्यान तुम्हारा सच्चा स्वरुप है :-ओशो कहते हैं “ध्यान और कुछ नहीं बस एक उपाय है तुम्हे अपने सच्चे स्वरुप के प्रति सजग करने का —वह तुम्हारा निर्माण नहीं है ;वह तुम हो ही। उसके साथ ही तुम जन्मे हो। तुम वही हो। बस उसका अविष्कार करना है। ” ध्यान द्वारा एक बार तुम अगर अपने सच्चे स्वरुप को जान लो तो तुम भीड़ के मनोविज्ञान का हिस्सा नहीं रहोगे। फिर तुम अंधविश्वासी नहीं रहोगे और तुम्हारा शोषण नहीं किया जा सकेगा। फिर तुम स्वयं के प्रकाश से जीने लगोगे। ध्यान के द्वारा तुम्हारे जीवन में अद्भुत आतंरिक सौंदर्य व एकजुटता आती है। फिर तुम्हारा व्यक्तित्व खंड खंड नहीं रहता।
(ओशो : ध्यानयोग प्रथम व अंतिम मुक्ति पृष्ठ 6 से 10 पर आधारित )
रजनीश ध्यान योग के पृष्ट 8 में ओशो कहते हैं “ध्यान के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। या जो भी मार्ग हैं वे सब ध्यान(मेडीटेशन ) के रूप हैं। प्रार्थना भी ध्यान है ,पूजा भी ,उपासना भी। योग भी ध्यान है ,सांख्य भी। ज्ञान भी ध्यान है भक्ति भी। कर्म भी ध्यान है सन्यास भी। ध्यान का अर्थ है चित की मौन,निर्विचार शुद्धावस्था। कैसे पाते हो इस अवस्था को यह महत्वपूर्ण नहीं है। बस पा लो ,यही महत्वपूर्ण है। किस चिकित्सा पद्द्ति से स्वस्थ होते हो ,यह गौण है। बस स्वस्थ हो जाओ यही महत्वपूर्ण है।
व्यावहारिक सुझाव :हम अपना बहुत सा समय निरर्थक बातो में खर्च कर देते हैं। तीन महीने के लिए हम एक प्रयोग कर सकते हैं। हम अपने परिवार के साथ आधा घंटा प्रतिदिन मौन बैठना शुरू करें।आजकल मौन बैठना जरा मुश्किल काम है। इसलिए पहले तीन से पांच मिनट तक कोई तेज़ शारीरिक गतिविधि कर लें जैसे तेज़ सांस लें या पांच सो तालियां बजाएं ,जोर जोर से या प्राणायाम करें या हल्का व्यायाम करें । नाचना चाहे तो नाच भी सकते हैं।
इसके बाद शांत हो कर बैठ जाए। बैठना असुविधाजनक लगे तो लेट जाएं। पर एक बार लेटने या बैठने के बाद हिलना जुलना बिलकुल बंद कर दें। पत्थर की मूर्ति बन जाएं। बिलकुल शांत व स्थिर। इस काम के लिए अपने घर में एक स्थान निश्चित कर लें।एक समय भी निश्चित कर लें। जो भी सुविधाजनक हो। उस निश्चित स्थान व निश्चित समय पर घर के सभी सदस्य आध घंटे तक चुपचाप बैठ जाएँ। आप चाहे तो अपने इष्टदेव की प्रतिमा भी रख लें। चाहें तो एक दीपक भी जला लें। पर यह ऑप्शनल है आवश्यक नहीं। व्यर्थ की ओपचारिकताओं में मत पड़े। बस शांतचित हो कर बैठे रहें या लेटे रहें।
तीन महीने में आपका कोई बड़ा नुकसान होने वाला नहीं है। ज्यादा से ज्यादा ,बुरा से बुरा ,आपके 45 घंटे लगेंगे। लेकिन मैं अपने अनुभव से आपको विश्वास दिलाता हूं की ये 45 घंटे आपके जीवन को बदलने वाले साबित होंगे। ध्यान का किसी भी धर्म ,किसी भी सम्प्रदाय से कोई सम्बन्ध नहीं है। हिन्दू ,मुस्लिम ,सिख ,इसाई –कोई भी इसे कर सकता है। यह शुद्ध धर्मनिरपेक्ष व शुद्ध वैज्ञानिक है। भारत सरकार से मेरा अनुरोध है की इसे हाई स्कूल तक अनिवार्य कर दिया जाए। बाद में अनिवार्य करना नहीं पड़ेगा ,विद्यार्थी अपने आप करने लग जाएंगे। तब तक यह उनके जीवन का अनिवार्य अंग बन जायेगा। जो जो पाठकगण भी शिक्षा से सम्बन्ध रखते हों वे इसे प्रयोग के तोर पर शुरू करें व इसके परिणामो से हमें अवगत करवाएं। मेरा दृढ विश्वास है की ध्यान को एक जनआंदोलन बनाए जाने की आवश्यकता है। नियमित ध्यान ही एकमात्र उपाए है। ध्यान से न केवल हमें मानसिक शान्ति मिलती है ,न केवल हमारा मानसिक और आध्यात्मिक विकास होता है बल्कि ध्यान से हम आधुनिक जीवन की चुनोतिओं का अधिक कुशलता से मुकाबला कर सकते हैं। ध्यान हमारी प्रतिभा को निखारने का काम करता है।